US-based Civil Society Organization Calls Upon Central Indian Government and State Government of Gujarat to Immediately Open Sardar Sarovar Dam Gates
FOR IMMEDIATE RELEASE | September 10, 2019
[HINDI BELOW] [हिंदी नीचे]
US-based Civil Society Organization Calls Upon Central Indian Government and State Government of Gujarat to Immediately Open Sardar Sarovar Dam Gates
In new report based on first-hand field research and documentation, University Network for Human Rights finds devastating impacts of Sardar Sarovar Dam on Adivasi Communities along Narmada River
(Bhopal, India, September 10, 2019): Today, the US-based University Network for Human Rights (“University Network”) released Waiting for the Flood: The Human Rights Impacts of India’s Sardar Sarovar Dam on Adivasi Communities along the Narmada River. The report—based on weeks of visits to dam-affected areas and in-depth interviews with Adivasi communities living under imminent threat of inundation by the dam’s floodwaters—documents the human toll of the dam and failure of the Indian government to meet its human rights obligations to meaningfully consult, adequately compensate, and rehabilitate the displaced and soon-to-be-displaced.
“We are extremely alarmed by the recent rapid rise of water levels in the Sardar Sarovar Reservoir and the government’s insistence on filling the reservoir to its maximum level, even as tens of thousands of project-affected families have yet to be adequately rehabilitated,” said Ruhan Nagra, Executive Director of the University Network for Human Rights. The University Network calls upon the government of India to open the gates of the dam so that water levels recede to 122 meters until all project-affected families living within the 138-meter submergence mark have been identified, compensated, and resettled on terms to which they agree and in a manner consistent with India’s domestic and international legal obligations.
Waiting for the Flood documents four patterns of abuse of project-affected Adivasis by the Indian government and dam authorities. Each of these patterns of abuse constitutes serious violations of the Indian government’s obligations to Adivasi communities, under both its domestic legal regime and international human rights law.
Government and dam officials used threats, harassment, and unmet promises of compensation to coerce scores of Adivasi families in the dam’s submergence zone to demolish their own homes in the summer of 2017. Many of these families were forced to live in makeshift shelters near the ruins of their former homes, unable to leave the submergence zone without land on which to build a new home. “Forced evictions are a gross violation of human rights including the right to adequate housing. It is unspeakable that residents were required to demolish their own homes,” said Leilani Farha, the UN special rapporteur on the right to housing.
In violation of India’s commitments under the United Nations Declaration on the Rights of Indigenous Peoples (UNDRIP), government and dam officials have systematically failed to recognize the traditional land tenure of Adivasi communities in the dam’s submergence zone, leaving families who lack formal title to their ancestral farmland with no procedural recourse to demand compensation for its inundation.
Government and dam officials have also arbitrarily and erroneously omitted many Adivasi families who do possess formal land titles (to land that is either already inundated or facing imminent inundation) from the official list of project-affected persons, excluding these families from compensation for the loss of their lands and livelihoods.
Moreover, the government’s shift towards cash- based rather than land-for-land compensation has left many Adivasis to fend for themselves on the open land market, often tearing apart extended families and communities who have lived together for generations.
“India must explore every option for Adivasi communities to remain in situ before embarking on any relocation plans,” Farha said, emphasizing that relocation and resettlement may only occur in those cases where communities face dangerous or hazardous situations that cannot be mitigated. “Adivasi communities must be allowed to meaningfully participate in any decisions regarding the effects of the Sardar Sarovar Dam on their ancestral lands, as well as any relocation plans, should they occur, including the geographic site and the timing of relocation,” she stressed.
*****************
The University Network for Human Rights (humanrightsnetwork.org) facilitates supervised undergraduate engagement in the practice of human rights at colleges and universities in the United States and across the globe. The University Network partners with advocacy organizations and communities affected or threatened by abusive state, corporate, or private conduct to advance human rights at home and abroad; trains undergraduate students in interdisciplinary human rights protection and advocacy; and collaborates with academics and human rights practitioners in other parts of the world to foster the creation of practical, interdisciplinary programs in human rights.
अमेरिका-स्थित सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशन ने केंद्रीय सरकार और गुजरात की राज्य सरकार को जल्द से जल्द सरदार सरोवर बांध के गेट खोलने की माँग की।
फील्ड रिसर्च और डॉक्यूमेंटेशन पर आधारित नई रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स ने नर्मदा नदी के किनारे रहने वाले आदिवासी समुदायों पर सरदार सरोवर बांध के विनाशकारी प्रभावों का पता लगाया
(भोपाल, भारत, सितंबर १०, २०१९): आज अमेरिका में स्थापित यूनीवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स ("यूनीवर्सिटी नेटवर्क") ने अपने रिपोर्ट वेटिंग फॉर दी फ्लड: नर्मदा के किनारे रहने वाले आदिवासी समुदायों पर भारत के सरदार सरोवर बांध का मानव अधिकार प्रभाव को रिलीज़ किया । यह रिपोर्ट सरदार सरोवर बांध के मानवीय परिणामों को, और भारत सरकार की विस्थापित एवं जल्द ही विस्थापित होने वाली परिवारों की परामर्श न लेने की एवं उन्हें पर्याप्त रूप से मुआवजा देकर पुनर्वास करने की असफलता को डॉक्यूमेंट करता है। यह रिपोर्ट प्रभावित क्षेत्रों में कई हफ़्तों की यात्राओं और बांध के पानी से डूबने के खतरे के तहत में रहने वाले आदिवासी समुदायों के साथ इंटरव्यूों पर आधारित है।
यूनीवर्सिटी नेटवर्क के एक्सेक्यूटिव डिरेक्टर रूहान नागरा ने कहा "सरदार सरोवर जलाशय में हाल ही में हुई जल स्तर की तेज वृद्धि एवं भारत सरकार के जलाशय को अधिकतम स्तर तक भरने की ज़िद के कारण हम बेहद चिंतित हैं, क्यों कि कई हज़ारों परियोजना-प्रभावित परिवारों को अभी तक पुनर्वासित नहीं किया गया हैं ।" यूनीवर्सिटी नेटवर्क की सिफारिश है की भारत सरकार सरदार सरोवर बांध के गेट खोलें और जल स्तर को १२२-मीटर तक घटाए ताकि भारतीय सरकार अपने संवैधानिक एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्वों को निभाकर १३८-मीटर जलमग्न चिह्न के अंतरगत रहने वाले सारे बांध परियोजना प्रभावित परिवारों को पहचाने और उनकी शर्तों का लिहाज़ करते हुए उन्हें पर्याप्त मुआवज़ा दे और उनका पुनर्वास करें।
वेटिंग फॉर दी फ्लड (बाढ़ के इंतिज़ार में) नामक यह रिपोर्ट बांध-प्रभावित आदिवासियों पर भारत सरकार एवं बांध अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों के चार पैटर्न डॉक्यूमेंट करता है। इस रिपोर्ट में डॉक्यूमेंट किया गया प्रत्येक अत्याचार यह दर्शाता हैं कि भारतीय कानूनी शासन एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून को अनदेखा करके भारत सरकार ने आदिवासि समुदायों के प्रति अपने दायित्वों का गंभीर उल्लंघन किया है।
२०१७ की गर्मियों में सरकार और बांध अधिकारियों ने बांध के जलमग्न क्षेत्र में कई आदिवासी परिवारों को अपने घरों को ध्वस्त करने के लिए मुआवजे के अधूरे वादों, धमकियों, और उत्पीड़न का इस्तेमाल किया। परंतु इन में से कई परिवारों को अपने नए घर के निर्माण के लिए भूमि नही मिली हैं, जिसके कारण यह परिवार जलमग्न क्षेत्र छोड़ने में असमर्थ रहे हैं और वे अपने पूर्व घरों के खंडहर के पास अस्थायी घरों में आश्रय लेने के लिए विवश हो गए हैं। “जबरन बेदखली पर्याप्त आवास जैसे मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन है। यह तो अकल्पनीय है कि घर के निवासियों को अपने घरों को स्वयं ध्वस्त करने की आवश्यकता थी," यूनाइटेड नेशंस के आवास-अधिकार के स्पेशल रप्पोर्तेउर लेइलानी फरहा ने कहा।
यूनाइटेड नेशंस के इंडिजेनस पीपल के अधिकारों की घोषणा के तहत भारत के दायित्वों का उल्लंघन करते हुए, सरकार और बांध अधिकारी बांध के जलमग्न क्षेत्र में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को पहचानने में व्यवस्थित रूप से असफल रहे हैं। इस वजह से जिन परिवारों के पास अपने पैतृक कृषि भूमि के लिए औपचारिक शीर्षक नहीं हैं, उन्हें अपने इस डूबने-वाली भूमि के लिए मुआवजे की मांग करने का कोई आधिकारिक रास्ता नहीं है।
सरकार और बांध अधिकारियों ने मनमाने ढंग से, या गलती से, सरकार के आधिकारिक "परियोजना प्रभावित व्यक्ति" सूची में कई आदिवासी परिवारों का नाम छोड़ दिया हैं - उनके पास अपनी (डूबी हुई या जल्द में डूबने वाली) ज़मीन के लिए पत्ता होने के बावजूद। इसके कारण इन व्यक्तियों को अपनी भूमि एवं आजीविका के नुक्सान के लिए मुआवज़ा भी नहीं मिल सकता हैं।
जमीन के लिए भूमि मुआवजे के बजाय सरकार ने मुआवजे के लिए पैसे देने का निश्चय लेकर कई आदिवासियों को अकेले भूमि खरीदने के लिए विवश कर दिया हैं, जिसके कारण विस्तारित परिवारों एवं कई पीढ़ियों से साथ रहने वाले समुदाय अलग हो गए हैं।
फरहा ने कहा, "भारत को किसी भी पुनर्वास योजना को शुरू करने से पहले आदिवासी समुदायों को स्वस्थाने में ही रखने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। फरहा ने कहा कि पुनर्वास और पुनर्स्थापन केवल उन मामलों में ही हो सकता है जहां समुदायों को खतरनाक परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा हैं और इन कठिनाइयों को कम नहीं किया जा सकता हैं।" आदिवासी समुदायों की पैतृक भूमि पर सरदार सरोवर बांध के प्रभावों के बारे में किसी भी निर्णय में आदिवासी समुदायों को भागीदार बनाना चाहिए। जैसे की अगर पुनर्वास ज़रूरी हो, तो उन्हें पुनर्वास के समय और स्थल के निर्णय में भागेदार बनाना चाहिए," उन्होंने जोर दिया।
*****************
यूनिवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स (humanrightsnetwork.org) अमेरिका और दुनिया भर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अंडरग्रेजुएटों को मानवाधिकारों की सुरक्षा करने में सहायता करती है। देश और विदेश में मानवाधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए यूनिवर्सिटी नेटवर्क अपमानजनक राज्यों और कॉर्पोरेटों के आचरण से प्रभावित वकालत संगठनों और समुदायों के साथ काम करती हैं। यूनिवर्सिटी नेटवर्क अंडरग्रेजुएट छात्रों को मानव अधिकारों की सुरक्षा करने की ट्रेनिंग देती हैं और दुनिया भर के मानव अधिकार विशेषज्ञों के साथ मिलकर मानव अधिकारों के विषय में प्रैक्टिकल प्रोग्राम बनाती हैं।