Waiting for the Flood: The Human Rights Impacts of India’s Sardar Sarovar Dam on Adivasi Communities along the Narmada River
September 2021
(HINDI BELOW) (हिंदी नीचे)
Executive Summary
The Sardar Sarovar Dam is a decades-long project of the Indian government and the states of Gujarat, Maharashtra, Madhya Pradesh, and Rajasthan. The project seeks to harness the waters of India’s fifth-longest river — the Narmada — for electricity generation and irrigation of farmland in the arid, western part of the country. While proponents of the dam have touted its potential for national economic development and poverty alleviation, the project's benefits have been distributed unevenly, leaving marginalized communities to bear its costs. With the completion of the Sardar Sarovar Dam’s construction in 2017 and the government's refusal to open the dam gates as water levels continue to rise, thousands of families now await the destruction of their homes, lands, and livelihoods, many with no prospect of adequate compensation or rehabilitation.
This report by the University Network for Human Rights ("University Network") documents the human toll of the Sardar Sarovar Dam and the failure of the Indian government to adequately compensate and rehabilitate the displaced and soon-to-be-displaced. The report is based on weeks of visits to affected areas and in-depth interviews with Adivasi communities living under imminent threat of inundation by the dam’s floodwaters. It documents four patterns of abuse by the Indian government and dam authorities.
First, as the dam neared completion in the summer of 2017, government and dam officials used threats, harassment, and unmet promises of compensation to coerce scores of Adivasi families in the dam’s submergence zone to demolish their own homes. Many of these families were forced to live in makeshift shelters near the ruins of their former homes, unable to leave the submergence zone without land on which to build a new home.
Second, government and dam officials have systematically failed to recognize the traditional land tenure of Adivasi communities in the dam’s submergence zone, leaving families who lack formal title to their ancestral farmland with no procedural recourse to demand compensation for its inundation.
Third, government and dam officials have arbitrarily and erroneously omitted many Adivasi families who do possess formal land titles (to land that is either already inundated or facing imminent inundation) from the official list of “project-affected persons,” excluding these families from compensation for the loss of their lands and livelihoods.
Fourth, the government’s shift towards cash-based rather than land-for-land compensation has left many Adivasis to fend for themselves on the open land market, often tearing apart extended families and communities who have lived together for generations.
Each of these patterns of abuse constitutes serious violations of the Indian government’s obligations to Adivasi communities, under both its domestic legal regime and international human rights law. Accordingly, the University Network recommends that the government of India open the gates of the Sardar Sarovar Dam so that water levels recede to the 122-meter mark. The gates of the dam should remain open until all project-affected families living within the 138-meter submergence mark have been identified, compensated, and resettled in a manner consistent with India’s domestic and international legal obligations.
HINDI:
सरदार सरोवर बांध भारत सरकार और गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों की दशकों-लंबी परियोजना है। इस परियोजना का उद्देश्य है कि वह भारत की पांचवीं सबसे लंबी नदी - अर्थात् नर्मदा - के पानी का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए एवं देश के निर्जल पश्चिमी हिस्से में कृषि भूमि की सिंचाई के लिए करें। बांध के समर्थकों ने परियोजना के राष्ट्रीय आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन में योगदान की क्षमता पर ज़ोर दिया हैं, परन्तु परियोजना के लाभ असमान रूप से वितरित किए गए हैं, और हाशिए वाले समुदायों को परियोजना की लागतों को सहन करने के लिए छोड़ दिया गया है। २०१७ में सरदार सरोवर बांध का निर्माण पूरा हुआ। बांध के जलमग्न क्षेत्र मे बढ़ते हुए जल स्तर के बावजूद भारत सरकार ने बांध के गेट खोलने से इनकार किया है, जिसके कारण अब हजारों परिवार अपने घरों, भूमि, और आजीविका के विनाश का इंतजार कर रहे हैं। इन में से कई परिवारों को पर्याप्त मुआवज़ा या पुनर्वास नहीं मिला हैं।
यूनीवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स ("यूनीवर्सिटी नेटवर्क") द्वारा उत्पादित यह रिपोर्ट सरदार सरोवर बांध के मानवीय परिणामों को, और भारत सरकार की विस्थापित एवं जल्द ही विस्थापित होने वाली परिवारों को पर्याप्त रूप से मुआवजा देकर पुनर्वास करने की असफलता को डॉक्यूमेंट करता है। यह रिपोर्ट प्रभावित क्षेत्रों में कई हफ़्तों की यात्राओं और बांध के पानी से डूबने के खतरे के तहत में रहने वाले आदिवासी समुदायों के साथ इंटरव्यूों पर आधारित है। यह रिपोर्ट भारतीय सरकार और बांध अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों के चार पैटर्न डॉक्यूमेंट करता है।
सबसे पहले, जब २०१७ की गर्मियों में बांध पूरा होने के करीब था, सरकार और बांध अधिकारियों ने बांध के जलमग्न क्षेत्र में कई आदिवासी परिवारों को अपने घरों को ध्वस्त करने के लिए मुआवजे के अधूरे वादों, धमकियों, और उत्पीड़न का इस्तेमाल किया। परंतु इन में से कई परिवारों को अपने नए घर के निर्माण के लिए भूमि नही मिली हैं, जिसके कारण यह परिवार जलमग्न क्षेत्र छोड़ने में असमर्थ रहे हैं और वे अपने पूर्व घरों के खंडहर के पास अस्थायी घरों में आश्रय लेने के लिए विवश हो गए हैं।
दूसरा, सरकार और बांध अधिकारी बांध के जलमग्न क्षेत्र में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को पहचानने में व्यवस्थित रूप से असफल रहे हैं। इस वजह से जिन परिवारों के पास अपने पैतृक कृषि भूमि के लिए औपचारिक शीर्षक नहीं हैं, उन्हें अपने इस डूबने-वाली भूमि के लिए मुआवजे की मांग करने का कोई आधिकारिक रास्ता नहीं है।
तीसरा, सरकार और बांध अधिकारियों ने मनमाने ढंग से, या गलती से सरकार के आधिकारिक "परियोजना प्रभावित व्यक्ति" सूची में कई आदिवासी परिवारों का नाम छोड़ दिया हैं - उनके पास अपनी (डूबी हुई या जल्द में डूबने वाली) ज़मीन के लिए पत्ता होने के बावजूद। इसके कारण इन व्यक्तियों को अपनी भूमि एवं आजीविका के नुक्सान के लिए मुआवज़ा भी नहीं मिल सकता हैं।
चौथा, जमीन के लिए भूमि मुआवजे के बजाय सरकार ने मुआवजे के लिए पैसे देने का निश्चय लेकर कई आदिवासियों को अकेले भूमि खरीदने के लिए विवश कर दिया हैं, जिसके कारण विस्तारित परिवारों एवं कई पीढ़ियों से साथ रहने वाले समुदाय अलग हो गए हैं।
आदिवासी समुदायों के खिलाफ भारतीय सरकार द्वारा किया गया प्रत्येक अत्याचार यह दर्शाता हैं कि भारतीय कानूनी शासन एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के आधार पर आदिवासि समुदायों के प्रति प्रदान किए गए दायित्वों का भारत सरकार ने गंभीर उल्लंघन किया है। अतः यूनीवर्सिटी नेटवर्क की सिफारिश है की भारत सरकार सरदार सरोवर बांध के गेट खोलें ताकि जल स्तर वापिस १२२-मीटर तक घट जाए। बांध के गेट को तब तक खुला रखना चाहिए जब तक भारतीय सरकार, अपने संवैधानिक एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्वों को निभाते हुए, १३८-मीटर जलमग्न चिह्न के अंतरगत रहने वाले सारे बांध परियोजना प्रभावित परिवारों को पहचान कर मुआवज़ा दे और पुनर्वास करें।